शनिवार, 13 मई 2017

कब आएंगे अच्छे दिन

अरुण कुमार बंछोर 
छत्तीसगढ़ी भाषा की फि़ल्मों को इस साल 52  बरस होने जा रहा हैं, लेकिन आधी सदी पुराना छत्तीसगढ़ का फि़ल्म उद्योग अब भी पहचान के के लिए तरस  रहा है.। नया राज्य बनने के बाद से 198 फि़ल्में छत्तीसगढ़ी भाषा में बनी हैं.यह और बात है कि दजऱ्न भर फि़ल्मों को छोड़ अधिकांश फिल्में अपनी लागत भी नहीं निकाल पाई है। पहली छत्तीसगढ़ी फि़ल्म 1965 में बनी थी-‘कही देबे संदेश’. इस फि़ल्म के गाने बेहद लोकप्रिय हुए थे, जिन्हें मोहम्मद रफ़ी, महेंद्र कपूर और मन्ना डे जैसे गायकों ने आवाज़ दी थी.लेकिन, फि़ल्म प्रदर्शन से पहले ही जात-पात की राजनीति करने वालों के निशाने पर आ गई और रायपुर के बजाए फि़ल्म का प्रदर्शन दुर्ग के तरुण टॉकीज़ में करना पड़ा था। बाद में फि़ल्म को सहकारिता को प्रोत्साहित करने वाली बताकर मनोरंजन कर में छूट भी दी गई.
इसके बाद निर्माता विजय कुमार पांडेय ने 1971 में ‘घर द्वार’ नाम से फि़ल्म बनाई. फि़ल्म के निर्देशक थे निर्जन तिवारी. फि़ल्म तत्कालीन मध्यप्रदेश के अलावा पड़ोसी राज्यों में भी रिलीज़ की गई. फि़ल्म के बारे में दावा किया जाता है कि यह फि़ल्म अच्छी चली. लेकिन ‘कही देबे संदेश’ और ‘घर द्वार’ के ‘चलने’ में मुनाफ़ा शामिल नहीं था, यही कारण है कि लगभग 30 साल तक किसी ने फिर छत्तीसगढ़ी फि़ल्म बनाने के बारे में सोचा भी नहीं.तीसरी छत्तीसगढ़ी फि़ल्म कोई तीस साल बाद वर्ष 2000 में ‘मोर छंइहा भुंइया’ नाम से बनी. छत्तीसगढ़ राज्य बनने वाला था और भाषाई प्रेम ज़ोर पर था. छत्तीसगढिय़ा अस्मिता की ताल ठोंकने वाले समय में परदे पर आई सतीश जैन की इस फि़ल्म ने इतिहास रचा. नया राज्य बनने से ठीक पहले आई इस फि़ल्म को देखने के लिए लोग सिनेमाघरों में टूट पड़े. यह सिलसिला अगले 2-3 बरसों तक बना रहा.इसके बाद छत्तीसगढ़ी में फि़ल्म बनाने का सिलसिला तो जारी रहा, लेकिन फि़ल्मों की सफलता का नहीं.‘मया देदे मया लेले’, ‘झन भूलो मां बाप ला’ और ‘मया’ जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो इस पूरे दौर में छत्तीसगढ़ी फि़ल्में बनती रहीं और मुंह के बल गिरती रहीं।
छॉलीवुड के नाम से पुकारे जाने वाली छत्तीसगढ़ी भाषा की फि़ल्मों के सबसे लोकप्रिय हीरो अनुज शर्मा की राय है कि छत्तीसगढ़ी की फि़ल्मों का अपना कोई स्वतंत्र बाज़ार नहीं है और इन्हें हिंदी फि़ल्मों से मुक़ाबला करना होता है. अनुज कहते हैं, मोर छइहा भुइंया फि़ल्म मोहब्बतें और मिशन कश्मीर जैसी फि़ल्मों के साथ रिलीज हुई थी. लगभग 20 लाख रुपये की लागत से बनी इस फि़ल्म ने इतिहास रचा था. हमारी फि़ल्मों का बजट तो हिंदी सिनेमा के जूते-चप्पल के बजट के बराबर होता है. फिर भी हम बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ में कॉमेडी फि़ल्में भी बन रही हैं और हॉरर भी, यहां तक कि वयस्क फि़ल्में भी. डबल रोल वाली फि़ल्में और थ्रीडी फि़ल्में तो हैं ही.हालांकि, अधिकांश फि़ल्मों की कहानी गांव केंद्रित होती है और अधिक हुआ तो गांव से शहर आए नायक की कहानी फि़ल्मों का आधार होती है.यही कारण है कि कई निर्माता-निर्देशक तो अपनी फि़ल्मों की शूटिंग अपने आसपास के गांव में ही करते हैं।
कभी-कभार आप रायपुर शहर के किसी चौक-चौराहे पर फि़ल्म की शूटिंग देख सकते हैं, लेकिन निर्माता-निर्देशक पड़ोसी राज्य ओडिशा को शूटिंग और संपादन के लिहाज से बेहतर मानते हैं। इसी तरह, अधिकांश फि़ल्मकारों की कोशिश होती है कि गीतकार-संगीतकार स्थानीय हों, लेकिन गायक या गायिका कोई बॉलीवुड से जुड़ा नाम हो. लेकिन इन फि़ल्मी गानों में भाषा भर छत्तीसगढिय़ा होती है, संगीत और ताम-झाम मुंबइया फि़ल्मों जैसा ही होता है.फि़ल्मों का बजट 15-20 लाख रुपये से लेकर एक करोड़ तक होता है और फि़ल्म में कलाकारों को अधिकतम 3 से 5 लाख रुपये मिलते हैं.फि़ल्म में स्थानीय कलाकार ही मुख्य भूमिका निभाते हैं, लेकिन हीरोइनों के लिए छत्तीसगढिय़ा फि़ल्मकारों को कई बार भोजपुरी, उडिय़ा या मुंबई की कम बजट वाली हीरोइनों का मुंह देखना पड़ता है.छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मुंबइया लटके-झटके और नकल के रास्ते सफलता तलाशने की भी लगातार कोशिश हो रही है.कई बार तो हिंदी समेत दूसरी भाषा की फि़ल्मों को सीधे-सीधे छत्तीसगढ़ी में डब किया जा रहा है या उनकी हास्यास्पद कि़स्म की रीमेक बन रही हैं.दिलचस्प यह है कि छत्तीसगढ़ी में डब की जाने वाली फि़ल्मों में मिथुन चक्रवर्ती की फि़ल्में पहले नंबर पर हैं.छत्तीसगढ़ में रहते हुए सुप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम की लिखी ‘गांजे की कली’ कहानी पर योगेंद्र चौबे ने कलात्मक फि़ल्म बनाई, जिसकी दुनिया भर में प्रशंसा हुई.इस फि़ल्म के निर्माता अशोक चंद्राकर कहते हैं, हमने मान लिया है कि छत्तीसगढ़ी फि़ल्म का मतलब है ऐसी फि़ल्म, जिसकी भाषा छत्तीसगढ़ी हो और वह लो बजट वाली हो. छत्तीसगढ़ी की फि़ल्म में यहां लाइफ स्टाइल, संस्कृति होनी चाहिए. जो आमतौर पर यहां की फि़ल्मों में दिखाई नहीं देती. बस्तर के इलाके में अविनाश प्रसाद जैसे लोगों ने हल्बी भाषा में ‘मोचो मया’ जैसी फि़ल्में बनाईं और नाम भी कमाया. ज़ाहिर है, हल्बी की फि़ल्म थी, इसलिए दर्शक भी केवल बस्तर के ही मिले. लेकिन अविनाश इससे निराश नहीं हैं। 

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