छत्तीसगढ़ी फिल्म बिजनेस कभी समाप्त नहीं होगा। वर्तमान में जो सिनेमा बन रहा है उसमें कुछ लोग अच्छा कर रहे हैं तो कुछ नौसिखिए ग्लैमर की चकाचौंध के आकर्षण में फंस फिल्मों से जुड़ गए है। इसी गड़बड़ से दर्शकों को निराशा होती है। व्यावहारिक रूप से फिल्म मेकिंग जानने के बाद ही निर्माण हो तो अच्छा होगा। यह विचार है छत्तीसगढ़ी फिल्मों के जनक
और पितामह मनु नायक का जिन्होंने पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ''कहि देबे संदेशÓÓ का निर्माण-निर्देशन कर छालीवुड का आगाज किया। भोजपुरी फिल्म गंगा मैय्या तोहे पियरी चढ़इबो से प्रेरित होकर सन् 1963 में श्री नायक ने छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माण की घोषणा अमर गायक मो. रफी की आवाज में गाना रिकार्डिंग कर की। गीत लिखा डॉ. हनुमंत नायडू ने जिन्होंने छत्तीसगढ़ी गीतों पर डाक्टरेट किया था और संगीत दिया मलय चक्रवती ने। तब तक फिल्म का नाम तय नहीं हुआ था, इसके पश्चात छत्तीसगढ़ी गीतों में संदेश होने की वजह से नाम रखा गया ''कहि देबे भइया ला संदेशÓÓ। कहानी तीजा पर भाई-बहन के स्नेह पर आधारित रखने का विचार हुआ लेकिन कालांतर में छूआछूत के खिलाफ स्टोरी लिखी गई तो नाम में भइया ला हटाकर कहि देबे संदेश रखा गया। नवंबर 1964 में फिल्म की शूटिंग छत्तीसगढ़ में पूर्व केन्द्रीय मंत्री बृजलाल वर्मा के रायपुर जिला स्थित पलारी ग्राम में हुई। 16 अपै्रल 1965 को रायपुर, भाटापारा, बिलासपुर में प्रदर्शित इस फिल्म ने इतिहास रचने के साथ ही सुर्खियां भी बहुत बटोरी।
उस दौर फिल्म को लेकर भारी विवाद हुआ ब्राह्मण और दलित की प्रेम कथा से कतिपय लोग उद्वेलित हो गए और प्रदर्शन नहीं करने की धमकियां भी। इसी वजह से तत्कालीन मनोहर टॉकिज कें मालिक पं. शारदा चरण तिवारी ने फिल्म के पोस्टर उतरवा दिए और प्रदर्शन रोक दिया। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने विवाद के चलते फिल्म देखी और समाज में भेदभाव समाप्त करने के संदेश को सराहते हुए अखबारों को बयान दिया तो विवाद भी खत्म हो गए। इसके बाद मध्यप्रदेश राज्य सरकार ने फिल्म टैक्स फ्री किया तो टॉकिजों के संचालक इसे प्रदर्शित करने टूट पड़े। फिल्म ने सफलता पूर्वक प्रदर्शन कर इतिहास रचने के साथ ही मनु नायक का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया है।श्री नायक बताते है कि फिल्म निर्माण से लेकर प्रदर्शन तक उन्हे कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा। इस दौरान उन्हे खुशी तब मिली जब डॉ. हनुमंत नायडू ने एक पत्र लिखा कि साधारण वर्ग के दर्शक फिल्म को पसंद कर रहे है। यहां बता दे कि श्री नायक बालीवुड फिल्म इंडस्ट्रीज में बरसो से कार्यरत है। प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक महेश कौल के साथ वे फिल्म प्रोडक्शन में जुटे रहे। रणजीत स्टूडियो में उनके आफिस को ये संभालते रहे है। कहि देबे संदेश के बाद क्षेत्रीय भाषा में असमिया की दो, हरियाणा फिल्म और सुपर हिट सिंधी फिल्म हल ती भजी हलून में वे एसोसियेट रहे। छत्तीसगढ़ में वे सुंदरानी फिल्म प्रोडक्शन की मयारू भौजी के निर्देशक मनु नायक ही है। कहि देबे संदेश को दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल में दो बार प्रसारण होने के साथ ही मध्यप्रदेश फिल्म डीवीजन ने भी खरीदा और गांव-गांव में प्रचार के लिए 16 एम.एम. में प्रदर्शित किया। खट्टे-मीठे अनुभव के साथ उन्होने दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म पठौनी की न केवल घोषणा की बल्कि उसके छह गाने रिकार्ड भी करवा लिए थे। काम में परफेक्शन नहीं होने की वजह से उन्होंने इसका निर्माण नहीं किया। गौरतलब है कि इसके लिए उन्होने बड़ी राशि खर्च की। छत्तीसगढ़ी कलाकारों को गाना गाने के प्रशिक्षण के लिए संगीतकार मलय चक्रवर्ती 15 दिन तक छत्तीसगढ़ में रहे और बाद में यहां से कलाकार मुंबई गए। कहि देबे संदेश के एक गाने में मुबारक बेगम द्वारा अंजोरिया को अंजुरिया उच्चारण के लिए पारिश्रमिक देकर विदा करने वाले श्री नायक काम के मामले में कोई समझौता नहीं करते। वे कहते है कि आज टैक्नोलॉजी ने बहुत सुविधाएं दी है लेकिन उस समय कलाकारों का समर्पण होता था। कहि देबे संदेश में मुंबई के कलाकारों ने जिस तरह छत्तीसगढ़ी में संवाद कहे वो उनकी गंभीरता को दर्शाता है। इस फिल्म की उन्होने डबिंग नहीं की थी। खट्टी-मीठी यादों को संजोए हुए श्री नायक उस दौर को बताते है कि वो ऐसा टाइम था जब सिनेमा देखना अच्छा नहीं समझा जाता था। फिल्म से बिगड़ जाने की धारणा थी तब फिल्म निर्माण करना कितना दुष्कर काम होगा कल्पना ही की जा सकती है। कहि देबे संदेश की ग्रेस्टेट टे्रेजेडी बताते हुए वे कहते है कि तब भी फिल्म चली और उन्होने सबका पैसा वापस लौटाया जिन्होने सहयोग दिया था। ठहाका लगाते हुए वे याद करते है कि जब भी मैं कड़का होता था तब राजकमल टॉकिज के सोलव साहब को कहता था कि कड़ाका हूं, फिल्म को मैटनी शोक में लगा दो, और वे सहर्ष लगा देते थे। गौरतलब है कि पहले टॉकिजों में दो पिक्चरें एक साथ चलती थी। मैटनी यानी 12 से 3 पहली और दूसरी बाकी तीन शो। सिंगल स्क्रीन थियेटर के बंद होने और मल्टीप्लेक्स के चलन को वे इंगित करते हुए कहते है कि सिनेमा बिजनेस कभी समाप्त नहीं होगा और छत्तीसगढ़ी फिल्में भी। वर्तमान में फिल्म नहीं बनाने की वजह वे स्पष्ट करते है कि प्रोफेशनली क्वालीफाइड लोग ठीक काम करते है लेकिन अब ग्लैमर के कारण प्रोफेशनल कम हो गए है। फिर वे हाथ जोड़कर काम करने की बजाए आर्डर करते रहे है जो न्यू जनरेशन के लिए मुफीद नहीं है। अंत में वे कहते है कि अब पूरी दुनिया में फिल्में एक्स्ट्रा आडिनरी होने पर ही चलती है फिल्म निर्माताओं को यह ध्यान रखकर ही फिल्म बनाना होगा।
और पितामह मनु नायक का जिन्होंने पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ''कहि देबे संदेशÓÓ का निर्माण-निर्देशन कर छालीवुड का आगाज किया। भोजपुरी फिल्म गंगा मैय्या तोहे पियरी चढ़इबो से प्रेरित होकर सन् 1963 में श्री नायक ने छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माण की घोषणा अमर गायक मो. रफी की आवाज में गाना रिकार्डिंग कर की। गीत लिखा डॉ. हनुमंत नायडू ने जिन्होंने छत्तीसगढ़ी गीतों पर डाक्टरेट किया था और संगीत दिया मलय चक्रवती ने। तब तक फिल्म का नाम तय नहीं हुआ था, इसके पश्चात छत्तीसगढ़ी गीतों में संदेश होने की वजह से नाम रखा गया ''कहि देबे भइया ला संदेशÓÓ। कहानी तीजा पर भाई-बहन के स्नेह पर आधारित रखने का विचार हुआ लेकिन कालांतर में छूआछूत के खिलाफ स्टोरी लिखी गई तो नाम में भइया ला हटाकर कहि देबे संदेश रखा गया। नवंबर 1964 में फिल्म की शूटिंग छत्तीसगढ़ में पूर्व केन्द्रीय मंत्री बृजलाल वर्मा के रायपुर जिला स्थित पलारी ग्राम में हुई। 16 अपै्रल 1965 को रायपुर, भाटापारा, बिलासपुर में प्रदर्शित इस फिल्म ने इतिहास रचने के साथ ही सुर्खियां भी बहुत बटोरी।
उस दौर फिल्म को लेकर भारी विवाद हुआ ब्राह्मण और दलित की प्रेम कथा से कतिपय लोग उद्वेलित हो गए और प्रदर्शन नहीं करने की धमकियां भी। इसी वजह से तत्कालीन मनोहर टॉकिज कें मालिक पं. शारदा चरण तिवारी ने फिल्म के पोस्टर उतरवा दिए और प्रदर्शन रोक दिया। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने विवाद के चलते फिल्म देखी और समाज में भेदभाव समाप्त करने के संदेश को सराहते हुए अखबारों को बयान दिया तो विवाद भी खत्म हो गए। इसके बाद मध्यप्रदेश राज्य सरकार ने फिल्म टैक्स फ्री किया तो टॉकिजों के संचालक इसे प्रदर्शित करने टूट पड़े। फिल्म ने सफलता पूर्वक प्रदर्शन कर इतिहास रचने के साथ ही मनु नायक का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया है।श्री नायक बताते है कि फिल्म निर्माण से लेकर प्रदर्शन तक उन्हे कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा। इस दौरान उन्हे खुशी तब मिली जब डॉ. हनुमंत नायडू ने एक पत्र लिखा कि साधारण वर्ग के दर्शक फिल्म को पसंद कर रहे है। यहां बता दे कि श्री नायक बालीवुड फिल्म इंडस्ट्रीज में बरसो से कार्यरत है। प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक महेश कौल के साथ वे फिल्म प्रोडक्शन में जुटे रहे। रणजीत स्टूडियो में उनके आफिस को ये संभालते रहे है। कहि देबे संदेश के बाद क्षेत्रीय भाषा में असमिया की दो, हरियाणा फिल्म और सुपर हिट सिंधी फिल्म हल ती भजी हलून में वे एसोसियेट रहे। छत्तीसगढ़ में वे सुंदरानी फिल्म प्रोडक्शन की मयारू भौजी के निर्देशक मनु नायक ही है। कहि देबे संदेश को दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल में दो बार प्रसारण होने के साथ ही मध्यप्रदेश फिल्म डीवीजन ने भी खरीदा और गांव-गांव में प्रचार के लिए 16 एम.एम. में प्रदर्शित किया। खट्टे-मीठे अनुभव के साथ उन्होने दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म पठौनी की न केवल घोषणा की बल्कि उसके छह गाने रिकार्ड भी करवा लिए थे। काम में परफेक्शन नहीं होने की वजह से उन्होंने इसका निर्माण नहीं किया। गौरतलब है कि इसके लिए उन्होने बड़ी राशि खर्च की। छत्तीसगढ़ी कलाकारों को गाना गाने के प्रशिक्षण के लिए संगीतकार मलय चक्रवर्ती 15 दिन तक छत्तीसगढ़ में रहे और बाद में यहां से कलाकार मुंबई गए। कहि देबे संदेश के एक गाने में मुबारक बेगम द्वारा अंजोरिया को अंजुरिया उच्चारण के लिए पारिश्रमिक देकर विदा करने वाले श्री नायक काम के मामले में कोई समझौता नहीं करते। वे कहते है कि आज टैक्नोलॉजी ने बहुत सुविधाएं दी है लेकिन उस समय कलाकारों का समर्पण होता था। कहि देबे संदेश में मुंबई के कलाकारों ने जिस तरह छत्तीसगढ़ी में संवाद कहे वो उनकी गंभीरता को दर्शाता है। इस फिल्म की उन्होने डबिंग नहीं की थी। खट्टी-मीठी यादों को संजोए हुए श्री नायक उस दौर को बताते है कि वो ऐसा टाइम था जब सिनेमा देखना अच्छा नहीं समझा जाता था। फिल्म से बिगड़ जाने की धारणा थी तब फिल्म निर्माण करना कितना दुष्कर काम होगा कल्पना ही की जा सकती है। कहि देबे संदेश की ग्रेस्टेट टे्रेजेडी बताते हुए वे कहते है कि तब भी फिल्म चली और उन्होने सबका पैसा वापस लौटाया जिन्होने सहयोग दिया था। ठहाका लगाते हुए वे याद करते है कि जब भी मैं कड़का होता था तब राजकमल टॉकिज के सोलव साहब को कहता था कि कड़ाका हूं, फिल्म को मैटनी शोक में लगा दो, और वे सहर्ष लगा देते थे। गौरतलब है कि पहले टॉकिजों में दो पिक्चरें एक साथ चलती थी। मैटनी यानी 12 से 3 पहली और दूसरी बाकी तीन शो। सिंगल स्क्रीन थियेटर के बंद होने और मल्टीप्लेक्स के चलन को वे इंगित करते हुए कहते है कि सिनेमा बिजनेस कभी समाप्त नहीं होगा और छत्तीसगढ़ी फिल्में भी। वर्तमान में फिल्म नहीं बनाने की वजह वे स्पष्ट करते है कि प्रोफेशनली क्वालीफाइड लोग ठीक काम करते है लेकिन अब ग्लैमर के कारण प्रोफेशनल कम हो गए है। फिर वे हाथ जोड़कर काम करने की बजाए आर्डर करते रहे है जो न्यू जनरेशन के लिए मुफीद नहीं है। अंत में वे कहते है कि अब पूरी दुनिया में फिल्में एक्स्ट्रा आडिनरी होने पर ही चलती है फिल्म निर्माताओं को यह ध्यान रखकर ही फिल्म बनाना होगा।
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